बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र
प्रश्न- अमरावती स्तूप के विषय में आप क्या जानते हैं? उल्लेख कीजिए।
उत्तर -
अमरावती (150-200 ई. पू.) - जिस समय उत्तरी भारत में गांधार व मथुरा शैली पनप रही थी, उसी समय दक्षिण भारत में मूर्तिकला के क्षेत्र में अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य हो रहा था। ईसा पूर्व दूसरी अथवा तीसरी शताब्दी में समस्त दक्षिण भारत पर आन्ध्र शासकों का साम्राज्य था। ये शासक कला प्रेमी थे। इन शासकों ने अनेक बौद्ध स्तूपों की रचना कराईं। इन्हीं शासकों ने 200 ई. पू. में अमरावती में एक विशाल बौद्ध स्तूप की रचना कराई। ईसा से लगभग 200 ई. पू. सातवाहनों के समय में आन्ध्र नरेशों द्वारा इस स्तूप का निर्माण महानवकर्मिक की देखरेख में पसनिक (पाषाणिक-संगतराश लोगों ने किया। चैत्यक नामक बौद्ध भिक्षु, पाटिलपुत्र, राजगीर (राजगृह), तमिलदेश, घण्टशला, विजयपुर (विजयवाड़ा) आदि से आये थे और स्थानीय गृहपतियों, उपासकों, वाणीयजनों (वणिक) सार्थ, राजलेख आदि के दान से अमरावती स्तूप का निर्माण किया गया। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्तूप साहवाहनों की राजधानी धान्यकटक (आधुनिक विजयवाड़ा के निकट जिला गुण्टूर स्थित) अमरावती में था, जो द्वितीय तृतीय शताब्दी में अपने विकास की चरम सीमा पर था। अमरावती स्तूप के अभिलेख मौर्यकालीन ब्राह्मी में प्राप्त हुए हैं। इसके साथ ही उनमें अमरावती का प्राचीन नाम 'धान्यकटक' तथा 'सातवाहन' नरेशों के नाम भी पाये गये। वासिष्ठी पुत्र पुलुभावी यज्ञ श्री शांतकाण, श्री शिवमकसदस इत्यादि हैं। कुछ अभिलेख तृतीय शताब्दी के इक्ष्वाकु वंश के काल के हैं। एक अभिलेख में पाँचवीं शताब्दी के वाकाटक वंश का उल्लेख है। तत्पश्चात् एक दीर्घ अंतराल के पश्चात् दो अभिलेख क्रमशः 1182 तथा 1234 ई. के अमरेश्वर मन्दिर में प्राप्त हुए हैं जिनमें बुद्ध के महास्तूप को दान देने का उल्लेख है। इससे स्पष्ट है कि अमरावती का स्तूप 13वीं शताब्दी का है।
अमरावती स्तूप को प्रकाश में लाने का श्रेय अंग्रेज विद्वान कर्नल मैकन्जी को है। इन्होंने सन् 1797 ई. में इस स्तूप को ध्वंसावस्था में देखा था। सन् 1816 - 1818 ई. में इन्होंने अवशेषों और मूर्तियों का सूक्ष्म अध्ययन किया। तत्पश्चात् सन् 1840 ई. में वाल्टर इलियट, 1876 ई. में स्बेल, 1881 ई. में बर्जेस और सन् 1905 ई. से 1906 ई. तक एलेक्जेण्डर री ने अमरावती का उत्खनन कार्य करवाया। वहाँ से प्राप्त कलाकृतियों को देश-विदेश के विभिन्न संग्रहालयों में भेजा गया।
स्तूप की रचना - अमरावती स्तूप अत्यन्त विशाल था। स्तूप के अण्ड का भूमि पर व्यास प्रायः 160 फुट था और ऊँचाई सम्भवतः 90 से 100 फुट तक थी। इसकी वेदिका लगभग 800 फुट की थी और ऊँचाई 13 फुट थी। इसमें 9 फुट ऊँचाई के 136 स्तम्भ और 2.75 फीट की 348 सूचियाँ थीं। ये सभी स्तम्भ और सूचियाँ उत्कीर्ण शिल्प से अलंकृत थीं। प्रत्येक प्रवेश द्वार के समक्ष एक 20 फीट ऊँचा चबूतरा था। चतुष्कोणों पर तोरण नहीं थे। उनके स्थान पर भारी-भारी दो-दो खम्भे थे जिनके ऊपर सिंहों की आकृतियाँ थीं। साँची की भाँति अमरावती में भी प्रदक्षिणापथ था। इसके चारों ओर एक वेदिका थी इसके सीधे खम्भे आयताकार फलकों पर आपस में जुड़े थे।
अमरावती स्तूप तथा उसके शिल्प में अंकित बुद्ध के प्रतीकों और प्रतिमाओं के अध्ययन से पता चलता है कि प्रारम्भ में (द्वितीय- प्रथम शताब्दी ई.) अमरावती स्तूप के फलकों में भी की उपस्थिति उनके प्रतीकों के माध्यम से दर्शायी गयी है। जैसे धर्मचक्र, बोधिवृद्ध स्तूप, चरण चिह्न इत्यादि। परन्तु द्वितीय शताब्दी ई. के प्रथम चरण में (लुडविंग, वैकोफर के अभिमत से 129 ई. में) अमरावती में बुद्ध की मानव प्रतिमा का अंकन प्रारम्भ हो गया था। अमरावती स्तूप के अण्ड पर लगे प्रस्तर फलक तथा इसकी वेदिका के स्तम्भ सूची और उष्णीय सातवाहन कला के चरमोत्कर्ष के साक्षी हैं। अमरावती स्तूप की उत्कीर्ण कला के चार विकार क्रम बताये गये हैं
(1) प्रथम काल - लगभग द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व का है। इस काल का शिल्प स्तूप निर्माण का समकालीन है, जिसके साक्ष्य मौर्य शुंगकालीन अभिलेख हैं।
(2) द्वितीय काल - लगभग 100 ई. सातवाहन नरेश वासिष्ठ पुत्र पुलुमावी का समकालीन है। इस युग के शिल्प-पट्ट पर स्तूप के अंड पर लगे थे।
(3) तृतीय काल - लगभग 150-200 ई. का है। यह अमरावती शिल्प का चरमोत्कर्ष काल है। इसी काल में वेदिका का निर्माण हुआ।
(4) चतुर्थ काल - लगभग तृतीय शताब्दी ई. का है, जो इक्ष्वाकु वंश का समकालीन है। इस काल में नागार्जुनकोण्डा के स्तूप का निर्माण हुआ और इस काल के शिल्प में इक्ष्वाकु - शिल्प की झलक है।
अमरावती के जातक कथाओं के दृश्य - अमरावती के जातक दृश्यों का अंकन स्तम्भों पर देखा जा सकता है। यहाँ पर छदंत जातक, विधुर पण्डित जातक, चुल्ल धम्मपाल जातक, महिला मुख जातक, महापनाद जातक, हंस जातक. लोसक जातक, चंपेय जातक, दूत जातक, सोमणरस जातक, सिवीं जातक तथा पदमकुमार से सम्बन्धित जातक दृश्यों की प्रथम प्रस्तुति अमरावती में हुई है। इनका उल्लेख परवर्ती साहित्य क्षेमेन्द्र के अवदान कल्पलता में हुआ। अन्य दृश्यों में भांधातावदान के विविध पक्ष, अजातशत्रु द्वारा बुद्ध का दर्शन, सपेरा और बंदन। बौद्ध प्रतीकों में अग्निस्कंध सहित पादुका पट्टों की बहुलता है।
अमरावती में साँची व भरहुत के समान बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित दृश्य व जातक कथायें हैं। इसके अतिरिक्त नाग, यक्ष, किन्नर, वृक्षिकायें, यक्षिणियाँ, पंखधारी मानव व पशु-पक्षी अलंकरण, हास्यदृश्य, पारिवारिक दृश्य अंकित किये गये हैं।
स्तूप की शैली - अमरावती के स्तूप की शैली में हीनयान की प्रतीकात्मकता तथा महायान की महत्ता का विचित्र सम्मिश्रण दृष्टव्य है। अमरावती के शिल्प की शैली की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी भक्ति भावना जिसको दर्शाने में शिल्पकार पूर्णरूपेण सफल हुआ। इस शैली में गहराई एवं सूक्ष्मता से काम किया गया है। यहाँ के अर्द्धचित्र सजीवतापूर्ण हैं। पुरुषों की आकृति त्रिभंगी मुद्रा में बनायी गयी है। ऊपरी भाग अनावृत्त है। पुरुषों को पेंचदार पगड़ी बाँधे हुए दिखाया गया है। उनकी धोती पर पटका बँधा है। अमरावती की शैली में कुछ ऐसी प्रतिमाएँ बनाई गईं जो अधिक गहरी काटी गई है और उनके अंगों में इतनी अधिक गोलाई दी गई है कि उन्हें केवल चारों ओर से कोरदार शिला-फलक से अलग कर देना ही शेष रह गया है। स्तूप में विदेशी शैलियों का कोई प्रभाव नहीं है। बुद्ध कथाओं के प्रदर्शन का ढंग भी आकृतियों की रचना की दृष्टि से गान्धार तथा मथुरा की अपेक्षा पर्याप्त जटिल हैं। अमरावती की शैली पर समकालीन शैली पर प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित है। आंध्र राज्य की धार्मिक और व्यापारिक सम्बन्धों की अधिकता के कारण अमरावती की कला का प्रभाव बहुत अधिक विस्तृत हुआ। सर्वाधिक प्रभाव लंका की बौद्ध कला पर हुआ। इसके साथ ही दक्षिण की परवर्ती पल्लव तथा चालुक्य काल की गतियुक्त आकृतियों के इतिहास को जानने के लिए भी अमरावती कला का महत्व अतुलनीय है।
अमरावती के शिल्पी का केन्द्र बिन्दु 'मनुष्याकृति' थी। मनुष्याकृतियों को उसने सुन्दर व सुडौल बनाया है जो भारीपन लिये हुए नहीं है। इसलिये अमरावती के शिल्प में जातक कथाओं की अपेक्षा भगवान बुद्ध के जीवन के प्रसंगों व राजसभाओं के दृश्य अधिक बनाये गये हैं। अमरावती प्रारम्भिक बौद्ध शिल्प और आध्यात्मिक कला के बीच की कड़ी मानी गई है। इस शिल्प में भक्ति भावना दृष्टव्य है जो भारतीय कला का प्राण है आगे चलकर जिसका पूर्ण विकसित रूप हमें गुप्त कालीन मथुरा व सारनाथ की प्रतिमाओं में पल्लवित होता है। भरहुत व साँची के शिल्पी प्रकृति प्रेमी थे। वे कमल खिले तालाबों, वनों, विभिन्न प्रकार के अलंकरणों तथा प्राकृतिक दृश्यों को अंकित करते थे। मूर्ति परम्परा में आगे चलकर बोधिसत्व और बुद्ध की प्रतिमाओं का अंकन किया। अमरावती के शिल्पकार को ही स्तूप शिल्पकला में बुद्ध की प्रतिमा के दर्शन कराने का श्रेय जाता है जो बिना किसी बाहरी प्रभाव के अपनी मौलिक कला परम्पराओं के आधार पर विकसित हुई।
अमरावती कला की विशेषतायें - अमरावती कला की प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित हैं-
(1) अमरावती कला में प्रबल गतिशीलता दृष्टव्य है।
(2) कृतियों में नाटकीय प्रभाव का प्रदर्शन किया गया है।
(3) अमरावती की प्राचीर की ऊँचाई 14-15 फीट है इसमें बड़ी-बड़ी मूर्तियों को तराशा गया। ये सामान्यतः खड़ी मूर्तियाँ हैं। आकृतियाँ लम्बी एवं पतली हैं।
(4) आकृतियों में लम्बेपन की अधिकता के कारण उनमें त्रिभंग की स्थिति स्पष्ट दिखाई देती है। विशेषकर नर्तकियों की आकृति में।
(5) प्राकृतिकता से आकृतियाँ जीवन के अधिक निकट आ गई हैं उनमें पर्याप्त सजीवता परिलक्षित होती हैं।
(6) अमरावती का स्तूप संगमरमर का बना है अतः यहाँ के शिल्प में अधिक आलंकारिकता, बारीकी एवं शिल्प में अर्द्धवृत्ताकार उभार दिया गया है।
(7) गति का प्रवाहं है।
(8) उभारदार अंकन किया गया है।
(9) मौलिकतापूर्ण आकृतियाँ सौन्दर्ययुक्त एवं हृदयस्पर्शी हैं।
(10) इन सभी प्रवृतियों ने मिलकर भारत में सर्वाधिक सुन्दर, परिष्कृत और भावपूर्ण कला को जन्म दिया।
(11) अमरावती के स्तूप की शैली में हीनयान की प्रतीकात्मकता तथा महायान की प्रवृतियाँ का विचित्र सम्मिश्रण दृष्टिगोचर है।
(12) उनकी मौलिक कल्पना वस्त्रालंकारों से अलंकृत हैं।
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